रस किसे कहते हैं, रस के प्रकार और इसके अंग | Ras Kise Kehte Hai
इस लेख में हम आपको रस की परिभाषा (Ras ki paribhasa) (Ras kise kahate hain), रस के भेद (Ras ke bhed) और Ras के उदाहरण के बारे में बताने वाले हैं। इस Article में रस के बारे में पूरी जानकारी दी गई है। इसको ध्यान से पढे।
रस क्या है?
किसी भी भाषा के साहित्य में रस के बिना काव्य की सत्ता की कल्पना नहीं की जा सकती। भारतीय साहित्यशास्त्रियों ने काव्य में रस की अनिवार्यता को समझा और स्पष्ट रूप से कहा भी। पंडितराज विश्वनाथ महापात्र के अनुसार “सरस अथवा रसयुक्त वाक्य समूह को काव्य कहते हैं”-“वाक्यम् रसात्मकं काव्यम्”।
रस को काव्य की आत्मा माना गया है, किंतु यह रस साधारण अर्थों में प्रयुक्त रस शब्द से भिन्न है। जब हम अपने किसी संबंधी या परिचित के सुख-दुख में सुखी या दुखी होते हैं तो यह लौकिक अनुभूति है, किंतु यदि हम मनुष्य मात्र के सुख-दुख में सुखी-दुखी होते हैं तो यह व्यक्तिगत संकीर्णता से ऊपर उठ जाता है। आचार्य शुक्ल के शब्दों में यही ‘हृदय की मुक्तावस्था’ है। काव्य से भावों का संस्कार होता है। जब साहित्य को पढ़कर मनुष्य अपनी निजी सत्ता को भूल जाए और कविता में व्यक्त भावों से तादात्म्य स्थापित कर ले, तो इस प्रक्रिया में हमारे मन के स्थायी भाव रस में परिणत हो जाते हैं। इस प्रकार काव्य से प्राप्त होने वाला आनंद जीवनानुभावों से प्राप्त होने वाले आनंद से भिन्न न होने पर भी उच्चतर स्तर को प्राप्त कर लेता है। अंतर केवल यही है कि, काव्य का आनंद व्यक्तिगत संकीर्णता से मुक्त होता है।
इस प्रकार काव्य पढ़ने या नाटक देखने से जो विशेष प्रकार का आनंद होता है, उसे रस कहा गया है। नाट्यशास्त्र के रचयिता भरतमुनि के अनुसार-‘विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः अर्थात् विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी (अथवा संचारी) भावों के संयोग से पुष्ट होकर स्थायी भाव रस की स्थिति को प्राप्त होता है।
रस के चार अंग होते हैं-
- स्थायी भाव
- विभाव
- अनुभव
- संचारी भाव (व्यभिचारी भाव)
1. स्थायी भाव
काव्य अथवा नाटक के आस्वादन से सहृदय के हृदय में भावों का संचार होता है। ये भाव प्रत्येक मनुष्य के हृदय में सहज मनोविकार के रूप में स्थायी भाव से विद्यमान रहते हैं। सुषुप्तावस्था में पड़े ये भाव साहित्य के आस्वादन के माध्यम से अनुकूल परिस्थिति आने पर जागृत हो जाते हैं और रस में परिणत हो जाते हैं। मानव मन में उठने वाले असंख्य भावों का वर्ग निर्धारण करके विद्वानों ने मुख्यत: नौ स्थायी भाव माने हैं। ये इस प्रकार हैं- रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा, विस्मय, निर्वेद (शांति)। कुछ विद्वानों के अनुसार निर्वेद दृश्य काव्य (नाटकादि) के अयोग्य है, कुछ के अनुसार वत्सल भाव को अलग कोटि ही माना जाना चाहिए, क्योंकि रति से भिन्न है, इसी प्रकार भक्ति को भी भिन्न कोटि का माना जाना चाहिए। इस आधार पर स्थायी भावों की संख्या आठ, दस या ग्यारह भी मानी जाती है।
2. विभाव
- विभाव का शाब्दिक अर्थ है — भाव को विशेष रूप से प्रवर्तित करने वाला।
भाव के जो कारण होते हैं, उन्हें विभाव कहा जाता है। विभाव वे वस्तुएँ या विषय हैं, जिनके प्रति किसी प्रकार का भाव या संवेदना होती है।
वे सब जो स्थायी भाव को जागृत और उद्दीप्त करते हैं, विभाव कहलाते हैं। - विभाव के दो प्रकार हैं — आलंबन और उद्दीपन।
आलंबन विभाव
किसी भी भाव के जागृत होने के लिए दो पक्षों का होना अनिवार्य है। वे वस्तुएँ या विषय जिन पर आलंबित होकर भाव उत्पन्न होते हैं, उन्हें आलंबन विभाव कहते हैं।
इसके दो भेद हैं —
आश्रय — जिस पात्र के हृदय में भावों की उत्पत्ति होती है, उसे आश्रय कहते हैं।
विषय — जिसके प्रति भावों का प्रवर्तन होता है, उसे विषय कहते हैं।
उद्दीपन
आश्रय के मन में स्थायी भाव के आस्वाद को उद्दीप्त या तीव्र करने वाली विषय की बाहरी चेष्टाओं और बाह्य वातावरण को उद्दीपन विभाव कहते हैं। रामचरित मानस के बालकांड में लक्ष्मण-परशुराम संवाद में परशुराम आश्रय हैं, क्योंकि उनके भीतर क्रोध का संचार होता है, लक्ष्मण आलंबन है, क्योंकि वे क्रोध के पात्र हैं। लक्ष्मण के कटु वचन परशुराम के क्रोध को बढ़ाते हैं, अत: विषयगत उद्दीपन हैं — तथा टूटा हुआ धनुष-बाहरी वातावरण भी क्रोध को तीव्र करने वाला है, अत: बहिर्गत उद्दीपन है।
3. अनुभाव
आश्रय के शारीरिक विकारों को अनुभाव कहा जाता है। हृदय में सुषुप्तावस्था में विद्यमान स्थायी भाव जब उबुध होते हैं तो आश्रय की आंगिक चेष्टाओं और युक्तियों द्वारा अपनी सत्ता को प्रकट करते हैं, यही अनुभाव है। अनुभाव मुख्यतः चार प्रकार के माने गए है
- सात्विक
- कायिक
- मानसिक
- आहार्य
4. संचारी अथवा व्यभिचारी भाव
संचार शब्द का अर्थ होता है-संचरण करने वाला। संचारी भाव मन के चंचल विकार हैं, जो आश्रय के मन में उत्पन्न होते हैं। इन्हें व्यभिचारी भी कहा जाता है, क्योंकि एक तो एक ही संचारी भाव कई रसों के साथ हो सकता है, दूसरा ये भाव पानी के बुलबुलों के समान उठते हैं और स्थायी भाव को रस की परिपक्वता तक पहुँचाकर शांत हो जाते हैं।
ये स्थायी भाव से भिन्न हैं, क्योंकि स्थायी भाव आश्रय के मन में आरंभ से अंत तक बना रहता है, जबकि संचारी भाव का विकास किसी स्थायी भाव के कारण होता है और उन्हें पुष्ट कर तथा रस की अवस्था तक पहुँचाकर विलीन हो जाते हैं।
संचारी भाव असंख्य है, किंतु आचार्यों ने 33 को प्रधानता दी है; जैसे
शंका — इष्ट की हानि और अनिष्ट की आशंका। इसके अनुभाव हैं-स्वरभंग, विवर्णता आदि।
स्मृति — समान अथवा संबंधित वस्तु के देखने-सुनने अथवा चिंतन करने से पूर्व वस्तु की स्मृति हो आना। इसके अनुभाव हैं-पुलकित होना, रोमांच, हँसना, रोना, भौहें चढ़ाना आदि।
रस के भेद
1. श्रृंगार रस
कामभावना अथवा कामदेव के जागृत होने को शृंग कहते हैं। अत: इस रस का आधार स्त्री-पुरुष का सहज आकर्षण है। जब प्रेमियों में सहज रूप से विद्यमान रति नामक स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी के संयोग से आस्वाद के योग्य (आनंद प्राप्त करने योग्य) हो जाता है, तो शृंगार रस कहते हैं।
उदाहरण — धनुष यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए विश्वामित्र के साथ गए राम और लक्ष्मण गुरु के लिए फूल लाने को जनक की वाटिका में जाते हैं। गौरी-पूजन के लिए आई सीता से वहाँ राम का साक्षात्कार हो जाता है। तुलसी की निम्नलिखित पंक्तियों में इसी संयोग शृंगार का वर्णन हैचितवत चकित चहूँ दिस सीता। कहँ गये नृप – किसोर मन चिंता।
लता ओट तब सखिन्ह लखाए। स्यामल गौर किसोर सुहाए।
देख रूप लोचन ललचानें। हरषे जनु निज निधि पहिचाने।
थके नयन रघुपति छवि देखी। पलकिन्हूँ परिहरी निमेषी।
अधिक सनेह देह भइ भोरी। सरद ससिहि जनु चितव चकोरी।
लोचन मग रामहि उर आनी। दीन्हें पलक कपाट सयानी।
यहाँ सीता के हृदय में विद्यमान राम के प्रति प्रेम स्थायी भाव है। (नायक) राम आलंबन हैं और सीता आश्रय हैं। लता और मंडप उद्दीपन हैं, पलक न झपकना तथा देह का शिथिल हो जाना अनुभाव हैं तथा ‘लोचन ललचाने’ ‘हरषे’ तथा ‘मन सकुचानी’ द्वारा क्रमश: अभिलाषा, हर्ष तथा लज्जा आदि संचारी भावों की अभिव्यक्ति होती है।
2. हास्य रस
इसका स्थायी भाव हास है। जब नायक-नायिका में कुछ अनौचित्य का आभास मिलता है, तो यह भाव जागृत हो जाता है। साधारण से भिन्न व्यक्ति, वस्तु, आकृति विचित्र वेशभूषा, असंगत क्रियाओं विचारों, व्यापारों, व्यवहारों को देखकर जिस विनोद भाव का संचार होता है, उसे हास कहते हैं।
यह ध्यान देने योग्य है कि यह हास्य चित्त को प्रसन्न करने वाला होना चाहिए। किसी को चोट पहुँचाने वाला नहीं।
बेनी कवि को किसी दानी ने एक रजाई दी। रजाई अत्यधिक पतली थी। उसके ओढ़ने से शीत जाने के स्थान पर शीत के कारण रोगग्रस्त हो जाने की अधिक संभावना थी। नीचे की पंक्तियों में उस रजाई की क्षीणता का वर्णन है
कारीगर कोऊ करामात कै बनाइ लायो;
लीन्हों दाम थोरो जानि नई सुधरई है।
रायजू ने रामजू रजाई दीन्हीं राजी बँके,
सहर में ठौर-ठौर सोहरत भई है।।
बेनी कवि पाइकै, अघाई रहे घरी दुवैके,
कहत न बने कछू ऐसी मति ठई है।
सांस लेत उडिगो उपल्ला औ भितल्ला सबै,
दिन वैके बाती हेत रुई रहि गई है।
यहाँ ‘हास’ स्थायी भाव है, रजाई आलंबन है और सांस लेने से उसका उपल्ला और भितल्ला उड़ जाना (अत्यधिक क्षीण होना) उद्दीपन है।
3. वीर रस
उत्साह स्थायी भाव जब विभावों, अनुभावों और संचारी भावों से पुष्ट होकर आस्वादन के योग्य होता है, तब उसे वीर रस कहते हैं। उत्साह के चार क्षेत्र पाए गए हैं युद्ध, धर्म, दया और दान। जब इन क्षेत्रों में उत्साह रस की कोटि तक पहुँचता है, तब उसे वीर रस कहते हैं।
उदाहरण- युद्धवीर-शत्रु के नाश का उत्साह।
दानवीर– दीन की दयनीय स्थिति अथवा उसके कष्ट निवारण का उत्साह।
धर्मवीर – धर्म स्थापना अथवा अधर्म नाश का उत्साह।
दयावीर – दीन-दुखियों की पीड़ा दूर करने, उनकी सहायता करने का उत्साह
मैं सत्य कहता हूँ सखे सुकुमार मत जानो मुझे।
यमराज से भी युद्ध में प्रस्तुत सदा मानो मुझे।
है और की तो बात ही क्या गर्व मैं करता नहीं।
मामा तथा निज तात से भी समर में डरता नहीं।
4. करुण रस
इष्ट वस्तु-वैभव आदि का नाश, अनिष्ट की प्राप्ति, प्रेम पात्र का चिर वियोग प्रियजन की पीड़ा अथवा मृत्यु की प्राप्ति अर्थ हानि आदि से जहाँ शोक भाव की परिपुष्टि होती है, वहाँ करुण रस होता है।
करुण रस जीवन में सहानुभूति की भावना का विस्तार करता है तथा मनुष्य को भोग की अपेक्षा साधना की ओर अग्रसर करता है, अत: महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
उदाहरण – मात को मोह, ना द्रोह’ विमात को सोच न तात’ के गात दहे को,
प्रान को छोभ न बंधु बिछोभ न राज को लोभ न मोद रहे’ को।
एते पै नेक न मानत ‘श्रीपति’ एते मैं सीय वियोग सहे को।।
तारन-भूमि मैं राम कह्यो, मोहि सोच विभीषन भूप कहे को ।।
लक्षमण के शक्ति लगने पर राम का विलाप इन पंक्तियों में वर्णित है। लक्ष्मण के लिए राम के विलाप करने से ‘शोक स्थायी भाव’ है। लक्ष्मण आलंबन हैं। लक्ष्मण का सामने पड़ा हुआ अचेत शरीर तथा उनका गुण कथन आदि उद्दीपन हैं। ‘मोहि सोच विभीषन भूप कहे को’ में राम द्वारा लक्ष्मण का वीरत्व-वर्णन है, क्योंकि संभवतः राम लक्ष्मण के बिना रावण को मार कर विभीषण को राजा बनाने के अपने वचन का पालन करने में अकेले अपने को असमर्थ समझते हैं। राम का विलाप अनुभाव है (क्योंकि राम यहाँ आश्रय हैं) मति, धृत*, स्मृति, वितर्क और विषाद आदि संचारी भाव हैं।
5. रौद्र रस
क्रोध के कारण उत्पन्न इन्द्रियों की प्रबलता को रौद्र कहते हैं। किसी विरोधी, अपकारी, धृष्ट आदि के कार्य या चेष्टाएँ, असाधारण अपराध, अपमान या अहंकार, पूज्य जन की निंदा या अवहेलना आदि से उसके प्रतिशोध में जिस क्रोध का संचार होता है, वहीं रौद्र रस के रूप में व्यक्त होता है।
उदाहरण – धनुषयज्ञ में राम के धनुष की डोरी खींचते ही धनुष टूट जाता है। उसके टूटने की ध्वनि दूर-दूर तक फैल जाती है। उस ध्वनि को सुनकर परशुराम आते हैं और क्रोध करते हैं:
तेहि अवसर सुनि सिव धनु भंगा। आये भृगुकुल कमल पतंगा।
देखत भृगुपति वेश कराला। उठे सकल भय विकल भुवाला।
पितु समेत कहि निज-निज नामा। लगे करन एक दंड प्रनामा।
***
बहुरि विलोकि विदेह’ सन, कहहु कहा अति भीर।
पूछत जान अजान जिमि, व्यापेउ कोप’ शरीरा।
समाचार कहि जनक सुनाये। जेहि कारन महीप’ सब आये।
सुनत वचन, फिर अनत निहारे । देखे चापखंड’ महि डारे।
अति रिस’ बोले वचन कठोरा। कहु जड़ जनक धनुष केहि तोरा।
वेगि दिखाउ, मूढ़ न तु आजू। उलटउँ महि’ जहिं लगि तव राजू।
6. भयानक रस
जब किसी भयानक वस्तु या आकार को देखने, उसके बारे में सुनने, भयप्रद घटना को सुनने, घातक परिणाम की कल्पना आदि से मन में वर्तमान भय पुष्ट होता है, तब भयानक रस होता है।
उदाहरण- रानी अकुलानी सब डाढ़त’ परानी जाहिं’,
सकै न विलोकि वेष केसरी-किसोर को।
मीजि-मीजि हाथ धुनि माथ दस माथ तिय’,
“तुलसी” तिलौ न भयो बाहरि अगार को।।
सब असबाब डारौ मैं न काढ़ो से न काढ़ो,
जिय की परी संभार सहन-भंडार को।
खीझति मंदोवै’ सविषाद देखि मेघनाद,
बयो लुनियात सब याही डाढ़ीजार को ।।
लंका के जलने पर मंदोदरी आदि के व्याकुल होने में ‘भय’ स्थायी भाव है। हनुमान आलंबन है, हनुमान का विकराल वेष तथा घर और सामान आदि का जलना उद्दीपन है; घबराना, भागना, हाथ मींजना, माथा धुनना, जलते हुए सामान को देखकर उसको बाहर निकालने के लिए झगड़ा करना, खीझना और मेघनाद को बुरा-भला कहना आदि अनुभाव हैं। विषाद्, चिंता, स्मृति आदि संचारी भाव हैं।
7. वीभत्स रस
वीभत्स रस का स्थायी भाव जुगुप्सा या घृणा है। बहुत से विद्वान इस सहृदय के अनुकूल नहीं मानते, फिर भी जीवन में घृणा उत्पन्न करने वाली स्थितियाँ कम नहीं है। गंदी, भद्दी अरुचिकर वस्तुओं के वर्णन से जब हृदय का घृणा भाव पुष्ट हो जाता है, तब वीभत्स रस उत्पन्न होता है।
उदाहरण- सिर पर बैठ्यो काग आँख दोउ खात निकारत।
खींचत जीभहिं स्यार अतिहि आनंद उर धारत।
गीध जांघि को खोदि-खोदि के मांस उपारत।।
स्वान आंगुरिन काटि-काटि के खात विदारत।।
यह शमशान घाट का चित्र है। राजा हरिशचंद्र इस दृश्य को देख रहे हैं। इसलिए हरिश्चंद्र आश्रय हैं। मुर्दे, मांस और शमशान का दृश्य आलंबन हैं। गीध, स्यार, कुत्ते आदि द्वारा मांस का नोचना और खाना उद्दीपन है। राजा का इनके बारे में सोचना अनुभाव है और मोह, ग्लानि आदि संचारी हैं। इन सबसे राजा के मन में उठने वाला घृणा का भाव स्थायी है। इस प्रकार यहाँ वीभत्स रस की व्यंजना हुई है।
8. अद्भुत रस
इसका स्थायी भाव विस्मय है। किसी असाधारण व्यक्ति, वस्तु या घटना को देखकर जो आश्चर्य का भाव जागृत होता है, वही अद्भुत रस में परिणत होता है।
उदाहरण- गोपी ग्वाल माली’ जरे आपुस में कहैं आली।
कोऊ जसुदा’ के अवतर्यो’ इन्द्रजाली है।
कहै पद्माकर करै को यौं उताली जापै,
रहन न पाबै कहूँ एकौ फन’ खाली है।
देखै देवताली भई विधि’ कै खुसाली कूदि,
किलकति काली’ हेरि हँसत कपाली हैं।
जनम को चाली” परी अद्भुत है ख्याली” आजु,
काली की फनाली” पै नचत बनमाली है।।
कृष्ण काली नाग को नाथकर पुनः प्रकट हुए हैं। उनकी इस अद्भुत लीला को देखकर आश्चर्यचकित व्रजवासी उनके संबंध में वार्तालाप कर रहे हैं। व्रजवासियों के चकित होने में आश्चर्य’ स्थायीभाव है, कृष्ण का ‘कालिया’ को नाथकर निकलना आलंबन है, कृष्ण का कालिया के फन पर बंशी बजाना तथा नाचना आदि कार्य उद्दीपन हैं, गोपीग्वाल का दौड़-दौड़ कर एकत्रित होना तथा कृष्ण के इस कार्य के संबंध में बातें करना आदि अनुभाव है तथा स्मृति (उनकी जन्मभर की चालों का स्मरण), औत्सुक्य (देखने के लिए दौड़ना), (उनकी देवताओं आदि का प्रसन्न होना), वितर्क आदि संचारी भाव हैं।
9. शांत रस
शम (शंत हो जाना) या निर्वेद (वेदना रहित) नामक स्थायी भाव इसका आधार है। ईश्वरीय प्राप्ति से प्राप्त होने बाले परम आनंद की स्थिति में सारे मनोविकार शांत हो जाते हैं और एक अनुपम शांति का अनुभव होने लगता है। यह शांति सांसारिक विषय वासनाओं से प्राप्त सुख से सर्वथा भिन्न होती है। इसी आधार पर नाट्यशास्त्र में नाटक में शांत रस की स्थिति स्वीकार नहीं की गई है।
उदाहरण- सुत बनितादि जानि स्वारथ रत न करु नेह सबही ते।
अंतहिं तोहि तजेंगे पामर! तू न तजै अबही ते।।
अब नाथहि अनुराग जागु जड़, त्यागु दुरासा जीते।
बुझे न काम, अगिनि ‘तुलसी’ कहुँ विषय भोग बहु घी ते।। -तुलसीदास (विनय पत्रिका)
इस पद्य में तुलसी ने सांसारिक मनुष्यों को संबोधित किया है। पुत्र, स्त्री आदि के संबंध स्वार्थजनित होते हैं। इनका मोह छोड़ देना उचित है। काम की आग विषय भोग से नहीं बुझती। इसलिए अरे मूर्ख! यह दुराशा छोड़कर परमात्मा के प्रति अनुराग पैदा करो। यहाँ संबोधित मनुष्य आश्रय है। सुत, बनिता आदि आलंबन हैं। इन्हें छोड़ने को कहना अनुभाव है। धृति, मति, विमर्श आदि संचारी हैं। इस प्रकार निर्वेद स्थायी भाव शांत रस में परिणत होता है।
वात्सल्य रस
इसे रस का अलग भेद मानने के संबंध में मतभेद है किंतु तुलसी, सूर आदि ने वात्सल्य रस की अनेक अनुपम कृतियाँ हमें भेंट दी हैं। बच्चों की मोहक बातों और गतिविधियों में स्वाभाविक आकर्षण होता है। इस आकर्षण में निहित स्नेह भाव की व्यंजना में ही वात्सल्य रस की निष्पत्ति होती है। अत: वात्सल्य भाव ही इसका स्थायी है,
उदाहरण- कबहूँ ससि माँगत आरि करें कबहूँ प्रतिबिंब निहारि डरें।
कबहूँ करताल बजाइ के नाचत मातु सबै मन मोद भएँ।।
कबहूँ रिसिआई करैं हठि के पुनि लेत सोई जेहि लागि अरें।
अवधेस के बालक चारि सदा तुलसी मन मंदिर में विहरैं।
-तुलसीदास (कवितावली)
यहाँ माता आश्रय हैं, चारों बालक आलंबन हैं, उनकी क्रीड़ाएँ उद्दीपन हैं। माताओं के मन में मोह भरना अनुभाव है। हर्ष, गर्व आदि संचारी हैं। इन सबके योग से इस पद्य में वात्सल्य रस की व्यंजना हुई है।
भक्ति रस
भक्ति रस में भी प्रेम का परिपाक होता है, किंतु यहाँ रति भाव इष्टदेव के प्रति होता है। जब वियावादि के संयोग से आराध्य विषयक प्रेम का संचार होता है, तब वहाँ भक्ति रस की व्यंजना होती है। कुछ विद्वान इसे शृंगार रस के अंतर्गत ही स्थान देते हैं, किंतु भक्ति भावना का आस्वाद और उत्कटता किसी भी प्रधान रस से कम नहीं है। यह सांसारिक शृंगार से कहीं अधिक उदात्त भाव है। भक्त कवियों की रचनाएँ इसका प्रमाण हैं।
यह शांत रस से भी भिन्न है क्योंकि शांत रस में जो मोक्ष की अभिलाषा रहती है, उससे भिन्न यहाँ भक्त केवल भगवान का सान्निध्य प्राप्त करना चाहता है।
उदाहरण- मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोई।।
साधुन संग बैठि-बैठि, लोक लाज खोई।
अब तो बात फैल गई, जानत सब कोई।।
असुअन जल सीचि-सींचि प्रेम बेलि बोई।
म्हारा को लगन लागी होनी होइ सो होई।
यहाँ कृष्ण आलंबन, ‘साथे संग’ उद्दीपन, ‘प्रेम-बेलि बोई’ अनुभाव, हर्ष, अश्नु आदि संचारी भाव हैं। इस प्रकार स्थायीभाव ‘इष्टदेव विषयक रति’ से पुष्ट होकर भक्ति रस में परिणित हो जाता है।
ध्यान देने योग्य
- काव्य को पढ़ने से उत्पन्न होने वाला आनंद ही रस है।
- मनुष्य के हृदय के भीतर के वे भाव जो अनुकूल परिस्थितियों में जागृत होकर रस की निष्पत्ति करते हैं, स्थायी भाव कहलाते हैं।
- स्थायी भाव को उबुध कराने वाले तत्व विभाव कहलाते हैं।
- आश्रय के शारीरिक विकार अनुभाव हैं।
- स्थायी भाव को रस की स्थिति तक पहुँचाने वाले मन के विकार संचारी भाव कहलाते हैं।
- विभाव, अनुभाव और संचारी भावों के संयोग से पुष्ट होकर स्थायी भाव रस की अवस्था को प्राप्त करता है।
- साहित्य से प्राप्त होने वाला रस सांसारिक रस से ऊँचा है। यह अनिर्वचनीय तथा निर्वैयक्तिक है।
- रस प्रायः नौ माने गए हैं।
- रस — शृंगार, हास्य, वीर, करुण, रौद्र, भयानक, वीभत्स, अद्भुत, शांत, वात्सल्य, भक्ति
- स्थायी भाव — रति, हास, उत्साह, शोक, क्रोध, भय, घृणा, विस्मय, शम, वत्सल, इष्टदेव विषयक रति