मेरी अविस्मरणीय यात्रा पर निबंध | My Unforgettable Trip Essay In Hindi
मेरी अविस्मरणीय यात्रा पर निबंध | My Unforgettable Trip par nibandh | My Unforgettable Trip par nibandh in Hindi | मेरी अविस्मरणीय यात्रा पर निबंध | My Unforgettable Trip par Hindi Essay | Essay on My Unforgettable Trip in Hindi
सभी के जीवन में कुछ घटनाएँ ऐसी होती हैं, जिन्हें भूल पाना कठिन होता है। मेरे जीवन में भी एक ऐसी घटना घटी जो मुझे आज तक याद है और वह है मेरी प्रथम रेल यात्रा।
पिछले वर्ष के ग्रीष्मावकाश में मेरे पिता जी ने मुंबई यात्रा का कार्यक्रम बनाया, तो मेरी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। पिता जी ने रेल की टिकटें आरक्षित करवा लीं। हम लोग गाड़ी के समय से एक घंटा पूर्व ही नई दिल्ली स्टेशन पर पहुँच गए। प्लेटफार्म पर यात्रियों की भारी भीड़ थी। मैंने उत्सुकतावश पिता जी से पूछा, “यहाँ तो बहुत भीड़ है, इतनी भीड़ में हम गाड़ी में कैसे चढ़ पाएँगे।”
पिता जी ने हँसते हुए कहा-“घबराओ नहीं, मैंने सीटें आरक्षित करा रखी हैं। हमारी सीटों पर कोई दूसरा नहीं बैठ सकता, इसलिए हम आराम से चढ़ेंगे।” तभी सूचना दी गई कि गाड़ी दो घंटे लेट चल रही है। खैर किसी तरह दो घंटे भी बीत गए। थोड़ी ही देर में पुन: सूचना दी गई “सभी यात्रियों को सूचित किया जाता है कि मुंबई जाने वाली मेल प्लेटफार्म नं0 10 पर आ रही है।”
जैसे ही गाड़ी आई प्लेटफार्म पर अफरा-तफरी मच गई। लोग डिब्बों में चढ़ने के लिए धक्का-मुक्की करने लगे। मैं गाड़ी में चढ़ने के लिए उतावला हो रहा था। पिता जी ने मुझसे कहा, “गाड़ी चलने में काफी समय है। लोग बिना मतलब इस तरह की धक्का-मुक्की कर रहे हैं। अधिकांश लोगों ने अपनी सीटें आरक्षित करा रखी हैं। हम आराम से चढ़ेंगे।” थोड़ी देर में हम अपने डिब्बे में चढ़े। सौभाग्य से हमारी सीटें निचले बर्थ पर थीं और एक सीट खिड़की के पास वाली थी। मैंने लपककर खिड़की वाली सीट पर कब्जा कर लिया। मैं इस सीट को पाकर बहुत खुश था।
थोड़ी ही देर में इंजन ने सीटी दी, गाड़ी सरकने लगी और धीरे-धीरे उसने रफ्तार पकड़ ली। डिब्बे के सभी यात्रियों ने कुछ-नकुछ करना शुरू कर दिया। किसी ने अखबार पढ़ना शुरू कर दिया, तो किसी ने कोई दूसरी पत्रिका। किसी ने ताश के पत्ते निकाले और ताश खेलना शुरू कर दिया। मैं भी कुछ पत्रिकाएँ लेकर आया था, उन्हें पढ़ने में व्यस्त हो गया। मेरे पिता जी भी अखबार पढ़ने में व्यस्त हो गए तथा माता जी साथ बैठी महिला से इस तरह घुल-मिलकर बात करने लगीं, मानो उनकी पुरानी जान-पहचान हो।
यद्यपि हम घर से खाना खाकर आए थे, परंतु साथ वाले यात्रियों को खाना खाते देखकर मुझे भी भूख लग गई। मैंने माता जी से खाने को कुछ माँगा, तो उन्होंने तुरंत मुझे पूरी-सब्जी दी। गाड़ी में खाने का मज़ा निराला ही होता है। तभी चाय बेचने वाला डिब्बे में आया। हमने चाय पी और मैं दोबारा कॉमिक पढ़ने लगा। धीरे-धीरे अँधेरा होता जा रहा था। मैं लेट गया और न जाने कब आँख लग गई। कभी-कभी आँख खुल जाती तो गाड़ी चलने की आवाज ही आती और पता न चलता कि हम कहाँ तक पहुँचे हैं।
अचानक शोर-शराबा हुआ। मैं जाग गया। मैंने देखा कि डिब्बे में कुछ यात्री चिल्ला रहे हैं। पता चला कि दो यात्रियों का सूटकेस गायब है। इतने में रेलवे पुलिस के सिपाही आ गए, क्योंकि सभी डिब्बे एक-दूसरे से जुड़े हुए थे इसलिए वे एक डिब्बे से दूसरे डिब्बे में आ जा सकते थे। उन्होंने खोज-बीन शुरू की। थोड़ी ही देर में वे दो व्यक्तियों को मारते-पीटते हमारे डिब्बे में ले आए। पुलिस की मार खाते-खाते उन्होंने अपना अपराध कुबूल कर लिया और किसी दूसरे डिब्बे में छिपाए गए सूटकेस मिल गए।
गाड़ी का सफर 22 घंटे का था। चलते-चलते दिन निकल आया था। यात्री जाग गए थे और नित्यकर्म से निवृत हो रहे थे। इतने में रेलवे विभाग के कर्मचारी आ गए और नाश्ते व चाय आदि का आर्डर लेने लगे। हमने भी चाय पी और नाश्ता किया। कुछ ही समय में डिब्बे में बातचीत का वही दौर शुरू हो गया। गाड़ी तेज़ रफ्तार से बढ़ी जा रही थी। एक के बाद एक स्टेशन आता, कुछ यात्री उतरते तो कुछ चढ़ते।
यही सिलसिला जारी रहा। अब दोपहर का समय हो गया था। हमने खाना खाया। अब बैठे-बैठे मन उकता गया था। मैं पिता जी से बारबार यही पूछता कि गाड़ी मुंबई कब पहुँचेगी? पिता जी ने हँसकर कहा, “बस केवल तीन-चार घंटे का सफर और है।” तीन-चार घंटे की यात्रा भी पूरी हुई और हम मुंबई पहुँच गए। प्रथम रेल यात्रा होने के कारण तथा चोरी वाली घटना के कारण मुझे यह यात्रा सदैव याद रहेगी।