पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं पर निबंध | Dependence Essay In Hindi
पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं पर निबंध | Dependence par nibandh | Dependence par nibandh in Hindi | पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं पर निबंध | Dependence par Hindi Essay | Essay on Dependence in Hindi
पराधीनता-सभी के लिए कष्टदायी
संस्कृत में कहा गया है—“पारतंत्र्यं महादुःखम् स्वातंत्र्यं परन्तं सुखम्।” परतंत्रता सबसे बड़ा दुख तथा स्वतंत्रता परम सुख है। इस सृष्टि में सभी चराचर स्वतंत्र रहना चाहते हैं, परतंत्रता सभी के लिए अत्यंत कष्टदायी होती है। फ्रांस के विद्वान रूसो ने एक बार कहा था, “मानव स्वतंत्र जन्मा है, किंतु वह प्रत्येक जगह बंधनों में बँधा है।” रूसो की यह पंक्ति भी स्पष्ट करती है कि स्वतंत्रता का सुख वर्णनातीत है। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने भी कहा था, “स्वतंत्रता हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है।” क्या सोने के पिंजरे में बंद पक्षी सच्चे सुख की अनुभूति कर सकता है? सब प्रकार के सुख होते हुए भी पराधीन व्यक्ति सच्चे सुख की अनुभूति नहीं कर सकता। अंग्रेज़ों के शासनकाल में लोगों को सभी प्रकार के सुख प्राप्त थे, परंतु पराधीन होने के कारण ये सुख भी कष्टदायक प्रतीत होते थे। अंग्रेजी में एक सूक्ति है-“स्वर्ग में दास बनकर रहने की अपेक्षा नरक में स्वाधीन शासन करना अधिक श्रेष्ठ है।”
स्वाधीनता-मानव की सहज प्रवृत्ति
स्वाधीनता मानव की सहज प्रवृत्ति है। अनेक देशों के स्वाधीनता संग्राम मानव के स्वाधीनता-प्रेम के उज्ज्वल उदाहरण हैं। राणा प्रताप, गुरु गोविंद सिंह, लक्ष्मीबाई, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, वीर सावरकर जैसे अनगिनत स्वतंत्रताप्रेमियों की जीवनगाथा को इतिहास कभी भुला नहीं पाएगा। भारत को पराधीनता की बेड़ियों से मुक्त कराने के लिए न जाने कितने शहीदों ने अपना बलिदान दिया।
पराधीन व्यक्ति आत्म-सम्मान और स्वाभिमान से शून्य
पराधीन व्यक्ति सदैव दूसरों का मुँह ताकता है। वह जड़वत् दूसरों की आज्ञा का पालन करते हुए जीवन बिताता है। प्रत्येक व्यक्ति समाज में सम्मान के साथ जीना चाहता है। यह सम्मान उसे पराधीनता की बेड़ियों में जकड़े रहकर प्राप्त नहीं हो सकता। पराधीन व्यक्ति का न तो आत्म-सम्मान होता है तथा न ही स्वाभिमान। आत्म-सम्मान और स्वाभिमान से रहित मनुष्य पशु तुल्य है। पराधीन रहने के कारण व्यक्ति की आत्मा का भी हनन हो जाता है और उसके व्यक्तित्व का विकास भी रुक जाता है।
अंग्रेज़ी राज्य में भारतीयों को जिस प्रकार का अपमानपूर्ण जीवन जीना पड़ा, उससे यह भली-भाँति स्पष्ट हो जाता है कि पराधीनता से बड़ा कलंक कोई नहीं। जो भारत कभी सोने की चिड़िया कहलाता था, पराधीनता के युग में वही दीन-हीन तथा जर्जर बन गया।
पराधीनता के भी कई रूप होते हैं। यह केवल राजनैतिक ही नहीं होती। यदि कोई जाति अपने मौलिक विचार प्रकट नहीं कर सकती या वह अपने-आप को अन्य जातियों से हीन समझती है, तो यह मानसिक पराधीनता है। यदि कोई व्यक्ति या राष्ट्र धन के लिए
दूसरों पर निर्भर करता है, तो यह आर्थिक पराधीनता है। पराधीनता चाहे मानसिक हो या आर्थिक, किसी व्यक्ति या राष्ट्र को दुर्बल, सम्मान-शून्य तथा स्वाभिमान-शून्य बना देती है।
पराधीनता दुखों की जननी है। आज के युग में पराधीनता मानवता के लिए सबसे बड़ी चुनौती तथा कलंक है। जो जाति स्वाधीनता का मूल्य नहीं पहचानती, वह हर प्रकार से दीन-हीन हो जाती है तथा उसका आत्म-सम्मान तथा स्वाभिमान नष्ट हो जाता है। इसीलिए व्यक्ति को अनेक कष्ट सहकर भी अपनी स्वाधीनता की रक्षा करनी चाहिए। दिनकर जी ने ठीक ही लिखा है — ‘नत हुए बिना जो अशनि घात सहती है, स्वाधीन जगत में वही जाति रहती है।’
हमारा कर्तव्य
आज हमारा कर्तव्य है कि हम आपसी फूट, कलह, ईर्ष्या तथा द्वेष की भावनाओं को त्याग दें, जिससे कि देश की स्वाधीनता सुरक्षित रह सके।