बढ़ते उद्योग सिकुड़ते वन पर निबंध | Badhati Sabhyata, Sikurte Van par Nibandh
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वन प्रकृति का अनुपम उपहार हैं। इस अमूल्य संपदा के कोष को बनाए रखने की महती आवश्यकता है। पेड़-पौधे तथा मनुष्य एकदूसरे के पोषक तथा संरक्षक हैं । जहाँ एक ओर पेड़-पौधे मनुष्य के संरक्षण में उगते हैं, वहीं दूसरी ओर मानव को भी आजीवन पेड़पौधों पर आश्रित रहना पड़ता है। इन वृक्षों, पेड़-पौधों अथवा वनों से प्राकृतिक तथा पर्यावरण संतुलन बना रहता है। संतुलित वर्षा तथा प्रदूषण से बचाव के लिए भी वनों के संरक्षण की नितांत आवश्यकता है। इतना ही नहीं, शस्य-श्यामला भूमि को बंजर होने से बचाने, भू-क्षरण, पर्वत-स्खलन आदि को रोकने में भी वन-संरक्षण अनिवार्य होता है। वन प्राकृतिक सुषमा के घर हैं। इन्हीं वनों में अनेक वन्य प्राणियों को आश्रय मिलता है।
हमारे देश में तो वृक्षों को पूजने की परंपरा है। हमारी संस्कृति में वृक्षारोपण पुण्य का कार्य माना जाता है तथा किसी फलदार अथवा हरे-भरे वृक्ष को काटना पाप । पुराणों के अनुसार एक वृक्ष लगाने से उतना ही पुण्य मिलता है जितना दस गुणवान पुत्रों का यश। खेद का विषय है कि आज हम वन-संरक्षण के प्रति न केवल उदासीन हो गए हैं वरन् उनकी अंधाधुंध कटाई करके स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं, जिससे प्रकृति का संतुलन बिगड़ गया है।
बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए आवासीय भूमि तथा उद्योग-धंधों की बढ़ती आवश्यकता ने हमें वनों की कटाई करने पर विवश कर दिया है। वनों को काटकर शानदार बस्तियाँ बसाई जा रही हैं तथा बड़े-बड़े उद्योग-धंधे स्थापित किए जा रहे हैं, जिसका प्रभाव हमारी जलवायु पर पड़ रहा है। आए दिन आनेवाली बाढ़ें, सूखा, भू-क्षरण, पर्वत-स्खलन तथा पर्यावरण की समस्याएँ मानव के विनाश की भूमिका बाँध रही हैं। ये समस्याएँ चेतावनी देती हैं—’हे मनुष्य! अभी समय है, वनों की अंधाधुंध कटाई मत कर अन्यथा बहुत पछताना पड़ेगा।’ पर मानव है कि उसके कान पर तक नहीं रेंगती। वह वनों की कटाई के इन दूरगामी दुष्परिणामों की ओर से जान-बूझकर आँख मूंदे हुए है।
हमारे वन हमारे उद्योगों के लिए मज़बूत आधार प्रस्तुत करते हैं। ये ईंधन, इमारती लकड़ी तो प्रदान करते ही हैं, साथ ही अनेक उद्योग-धंधों के लिए कच्चा माल भी उपलब्ध कराते हैं। लाख, गोंद, रबड़ आदि हमें वनों से ही प्राप्त होते हैं। प्लाइवुड, रेशम, वार्निश, कागज, दियासलाई जैसे अनेक उद्योग-धंधे वनों की ही अनुकंपा पर आधारित हैं । ये वन ही भूमिगत जल के स्रोत हैं।
आज नगरीकरण शैतान की आँत की तरह बढ़ता जा रहा है जिसके लिए वनों की अंधाधुंध कटाई करके मनुष्य स्वयं अपने विनाश को निमंत्रण दे रहा है। सिकुड़ते जा रहे वनों के कारण पर्यावरण-प्रदूषण इस हद तक बढ़ गया है कि साँस लेने के लिए स्वच्छ वायु दुर्लभ हो गई है। बड़े-बड़े उद्योग-धंधों की चिमनियों से निकलता धुआँ वातावरण को प्रदूषित कर रहा है। बेमौसमी बरसात तथा ओलों की मार से खलिहानों में पड़ी फसलें चौपट होने लगी हैं तथा धरती मरुस्थल में बदलती जा रही है। वनों की कटाई के कारण ही पर्वतों से करोड़ों टन मिट्टी बह-बहकर नदियों में जाने लगी है। सबसे गंभीर बात तो यह है कि पृथ्वी के सुरक्षा कवच ओजोन में भी बढ़ते प्रदूषण के कारण दरार पड़ने लगी है। यदि वनों की कटाई इसी प्रकार चलती रही, तो वह दिन दूर नहीं जब यह संसार शनैः-शनैः काल के गाल में जाने लगेगा और विनाश का तांडव होगा।
आज आवश्यकता इस बात की है कि वनों की अंधाधुंध कटाई पर रोक लगाई जाए। काटे गए वृक्षों के बदले वृक्षारोपण करके इसकी क्षतिपूर्ति की जा सकती है। वनों की कटाई के स्थान पर उद्योग-धंधे ऐसे स्थानों पर स्थापित किए जाएँ, जहाँ बंजर भूमि है तथा कृषि योग्य भूमि नहीं है। हर्ष का विषय है कि सरकार ने वृक्षारोपण को बढ़ावा दिया है। जनमानस भी इस ओर जाग्रत हुआ है तथा अनेक समाजसेवी संस्थाओं ने वन-संरक्षण की महत्ता को जन-जन तक पहुँचाया है। चिपको आंदोलन इस दिशा में सराहनीय कार्य कर रहा है।
समरूपी निबंध : . बढ़ती जनसंख्या : सिकुड़ते वन वन रहेंगे, हम रहेंगे वन और हमारा पर्यावरण अगर वन न होते. वनों से पर्यावरण संरक्षण।